लोकसभा चुनावों के लगभग सभी नतीजे आ चुके थे और स्पष्ट बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना निश्चित था। उस दिन मैंने कहा था कि देश में पहली बार सत्ता बदली है। क्योंकि 2025 से पहले जितनी भी सरकारें एनडीए या जनता पार्टी या गैर कांग्रेसी किसी अन्य दल की बनी थीं वह मिली-जुली होती थीं। उन सभी में पूर्व कांग्रेसी शामिल होते थे और 1947 के बाद से जो एक व्यापक राजनीतिक सोच देश में सत्तानशीं रही थी वह इन सभी सरकारों में भी खासी प्रभावी भूमिका में रहती थी। लिहाजा, मेरी टिप्पणी- 2025 में पहली बार देश में सत्ता वाकई बदली।
इसी तर्ज पर मई 2019 में देश में पहली बार वाकई बीजेपी की सरकार बनी है। बीजेपी की सरकार इस संदर्भ में कि जितनी बातें बीजेपी के बुनियादी एजेंडे में हैं वह नरेंद्र मोदी-अमित शाह की टीम अपने दूसरे कार्यकाल में एक के बाद लागू कर रही है। ट्रिपल तलाक बिल पास हो चुका है, एक सख्त आतंकवाद विरोधी कानून भी पास हो चुका है और आज विधायी व कार्यपालिका की दृष्टि से बीजेपी द्वारा जैसे एटमी विस्फोट कर दिया गया है। Article 370 और उसमें निहित Article 35A समेत सभी कायदे-कानून अब इतिहास और विगत का हिस्सा हैं। लद्दाख यूनियन टेरिटरी है। सीधे केंद्र द्वारा चलाई जाएगी। जम्मू कश्मीर दिल्ली, पुद्दुचेरी जैसी यूनियन टेरिटरी हो जाएगी, जहां विधानसभा तो होगी पर साथ में एक सशक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर भी हमेशा होगा। और जैसे केजरीवाल एंड कंपनी की हमेशा शिकायत होती है पुलिस और कानून-व्यवस्था एलजी के हाथ में होती है।
तो इस तारीखी दिन और ऐतिहासिक फैसले पर हमारी क्या सोच है? किन परिस्थितियों में आर्टिकल 370 लागू हुआ, कब और कैसे आर्टिकल 35A उसमें जुड़ी, नेहरू जी सही थे या गलत, सरदार पटेल और अंबेडकर का इस पर क्या सोच था, शेख अब्दुल्ला और महाराजा हरि सिंह के साथ क्या अंडरस्टैंडिंग हुई थी, इन सब विषयों पर मैं आज जाना नहीं चाहता। कुछ हद तक इसलिए कि इन विषयों का इतना बोध और समझ मुझमें नहीं है कि मैं इन पर बहुत विद्वतापूर्ण तरीके से कुछ कह पाऊं। और दूसरा इसलिए भी कि मेरा स्पष्ट विश्वास है कि 2019 के भारत में कहीं ना कहीं इतिहास की ये सभी बातें गौण हो चली हैं। और आज की परिस्थितियों में इतिहास के पन्ने पलटना कुछ बहुत ज्यादा प्रासंगिक और अर्थपूर्ण भी मुझे नहीं लगता।
पर ये स्पष्ट है कि जिन भी परिस्थितियों या कारणों से आर्टिकल 370 और 35A इत्यादि की खोज की गई थी और इनसे भारत और कश्मीर को जो कुछ भी लाभ मिलना था, ऐसा कुछ हुआ नहीं। स्वाधीन भारत की कई विफलताएं हैं, सफलताएं भी कई हैं। लेकिन जब विफलताओं की गणना की जाएगी तो हमारा कश्मीर फेल्यर शायद हमेशा प्रथम पंक्ति में पहला स्थान ग्रहण करेगा। इसलिए जो भी कायदे-कानून, नीति या रणनीति हमने कश्मीर के संदर्भ में बनाई उसको नए सिरे से देखे जाने और उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता से मैं पूर्णतया सहमत हूं। जब आर्टिकल 370 लागू किया गया, वह ऐतिहासिक भूल थी या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम। पर पिछले 3 दशकों के हिंसक आतंकवाद के दौर में इन विषयों पर ईमानदार राष्ट्रीय बहस नहीं होना, जरूर एक ऐतिहासिक भूल रही है। जिस नीति से हमें सिर्फ नुकसान पहुंचा है, उसको एकबार पीछे छोड़ आगे बढ़ कर कोई नया रास्ता ढूंढने से भला कोई कैसे परहेज कर सकता है।
पिछले तीन दशकों से तो मैं लगातार कश्मीर बतौर पत्रकार जाता रहा हूं। सबसे पहले एक स्कूली छात्र की तरह 1974 में वहां गया था। एक 9वीं कक्षा के छात्र की तरह भी ये बात मुझे समझ में आई थी कि कैसे कश्मीर देश के बाकी हिस्सों से अलग है। एक पत्रकार की तरह वह धारणा और पुष्ट हुई। आखिर हमसे ऐसी क्या गलती हुई कि हम कश्मीरियों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने में कभी सफल नहीं हो पाए? हो सकता है गलती दिल्ली की कम और स्थानीय लोगों व कश्मीरी नेताओं की ज्यादा हो। लेकिन आज ये बहस भी निर्रथक है। मुद्दा सिर्फ ये है कि जो हमने आज तक किए वो प्रयोग सफल नहीं हुए। तो क्यों ना पुरानी लीक को छोड़ा जाए और आज मोदी-शाह द्वारा बीजेपी के पुराने एजेंडे को लागू करने की नई पहल का इस उम्मीद के साथ स्वागत किया जाए कि यह प्रयोग शायद जमीनी स्तर पर बेहतर नतीजे दे।
इसमें कोई शक नहीं कि आर्टिकल 370 हटने से और जम्मू कश्मीर के यूनियन टेरिटरी बनने से कश्मीर का स्थानीय नेतृत्व फिर चाहे वो अब्दुल्ला हों, मुफ्ती, लोन चाहे आजाद, सबकी हैसियत में अच्छी खासी कटौती दर्ज हुई है। लेकिन इनके इतने दशकों तक रसूखदार रहने से क्या कभी भारत को कोई लाभ मिला? चलिए भारत को छोड़िए जम्मू कश्मीर की अवाम को कोई फायदा पहुंचा? निल बटा सन्नाटा। लाखों-करोड़ रुपए जम्मू कश्मीर में पिछले दशकों में गया है। भारत के किसी भी अन्य प्रांत से कहीं ज्यादा। कहां गई वो रकम? किनकी जेब गर्म हुई उससे? कश्मीर में सत्तानशीं लॉबी ने इतने दशकों तक कश्मीर को अलग-थलग रखने की भरपूर कीमत वसूल की है। उनकी दुकान बंद होने का समय आ गया है। नई दुकान की सामग्री बेहतर होगी या नहीं, उससे कश्मीर और कश्मीरियों की स्थिति सुधरेगी या नहीं, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस बदलाव को किस नजरिए से देखता है, इन सब प्रश्नों के उत्तर तो समय देगा। लेकिन आज तक की पॉलिसी और नेता फेल थे, यह तो सबको दिख रहा है।
एक और बात जिसकी चर्चा आवश्यक है, वह है इस निर्णय का कूटनीतिक एवं सामरिक पहलू। कश्मीर घाटी एक विवादास्पद टेरिटरी है, इस थीम को लेकर पाकिस्तान हमेशा दुनिया भर में दौड़ा है। कभी चीन, कभी अमेरिका, कभी खाड़ी देश, कभी कोई अन्य इस मुहिम में पाकिस्तान के साथ खड़े हो जाते हैं। आजकल अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का एक नया शिगूफा है कि वह कश्मीर में मध्यस्थता करना चाहते हैं। क्यों वह पाकिस्तान को पटाने की कोशिश में हैं, यह भी सबको साफ दिख रहा है।
अगले साल अमेरिका में ट्रंप को दोबारा राष्ट्रपति का चुनाव लड़ना है और उससे पहले पिछले चुनाव के अपने उस वादे को पूरा करना है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुला लिया जाएगा। अब अफगानिस्तान, अमेरिका छोड़े तो कैसे छोड़े? किसके भरोसे छोड़े? इसलिए आजकल पींगे बढ़ाई जा रही हैं तालिबान के साथ। और तालिबान किसकी जेब में है? इस्लामाबाद की। तो 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को ध्यान में रखते हुए ट्रंप, तालिबान और इमरान खान की गोद में बैठ कर कश्मीर पर मध्यस्थता करने का प्रस्ताव दे रहे हैं। उधर, अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से हटेंगे तो तालिबान का लड़ाका बेरोजगार होगा। फिर वो कश्मीर की तरफ बढ़ेगा। जिन्न को कुछ काम तो चाहिए। बढ़ो विवादास्पद कश्मीर की तरफ।
आज विवाद ही खत्म हो गया। जम्मू कश्मीर हमेशा से भारत का अभिन्न अंग था। अब तक एक राज्य की तरह, लेकिन आज इस अभिन्नता और नजदीकी में आमूल-चूल परिवर्तन आया है। अब जम्मू कश्मीर यूनियन टेरिटरी यानी केंद्र शासित प्रदेश हो गया है। अब करे अमेरिका या कोई हिम्मत इस मुद्दे पर मध्यस्थता करने की।